आई वी सी फ़िल्टर ( I V C ) -फ़िल्टर किसी चीज़ को छानने के लिए होता है , एक दशक पहले तक यह माना जाता था की डीप वीन थ्रोम्बोसिस ( D V T ) के इंडिया में बहुत कम मरीज पाए जाते है, पर समय के साथ यह अवधारणा गलत साबित हुए और यह पाया गया की DVT इंडिया में भी बहुत आम समस्या है। डीप वीन थ्रोम्बोसिस मतलब हम पैरो या हाथो की खून की नसे जो खून को वापस फेपड़े से होकर दिल में ले जाती है में खून के थक्का जमने को बोलते है. (डीप वेन थ्राम्बोसिस एक ऐसी स्थिति है जिसमें शरीर में कहीं किसी एक नस के भीतर रक्त का थक्का बन जाता है। डीप वेन थ्राम्बोसिस ज्यादातर निचले पैर या जांघ में होता है हालाँकि यह कभी-कभी शरीर के अन्य भागों में भी हो सकता है। रक्त का थक्का जमा हुआ रक्त है जो रक्त के साथ दूसरे स्थानों तक स्थानांतरित हो सकता है।) इसमें कुछ मरीजों में खून के थक्के को टूट कर फेपड़े में जाने का डर होता है , यदि यह थक्का फेफड़े में चला जाय तो इसे पल्मोनरी एम्बोलिस्म कहते है. सामान्यता हम DVT का इलाज खून को पतला करने वाली दवा ( एंटिकोगुलेशन) से करते है , पर कुछ मरीजों में हम यह दवा नहीं दे सकते है उन मरीजों में फ़िल्टर का उपयोग किया जा सकता है , पर समय के साथ अब फ़िल्टर के लगाने के कारण /इंडिकेशन बहुत कम या न के बराबर हो गए है. चार प्रमुख इंडिकेशन IVC फ़िल्टर लगाने के निम्न है.
१) जब हम किसी कारण से एंटिकोगुलेशन नहीं दे सकते ( कन्ट्राइंडिकेशन जैसे की -ब्लीडिंग का रिस्क या ब्लीडिंग हो रही हो)
२)एंटिकोगुलेशन के कारण कोई कम्प्लीकेशन हो
३) एंटिकोगुलेशन पे होने पर भी मरीज को बार बार पल्मोनरी एम्बोलिस्म हो रहा हो।
४) जब हम पेशेंट को एसट्रोम /वारफरीन पे रखे और थेऊरेप्टिक INR न प् सके , हालांकि अब यह इंडिकेशन NOAC के आने से बहुत जयदा म्याने नहीं रखता
इसके अतिरिक्ति बहुत से और रिलेटिव इंडिकेशन हो सकते है.
फ़िल्टर लगाने के बाद ऐसा नहीं है की १०० % खून के थक्के को फेफड़े में जाने से रोक सकते है. पर उसकी संभावना को कम कर सकते है. फ़िल्टर जब भी हम लगाते है तो एक्यूट ( नया थक्का ) कंडीशन में ही लगाते है , एक बार थक्का पुराना हो जाय तो फ़िल्टर का ज्यादा रोल नहीं रहता है।
समय के साथ इसका उपयोग बहुत कम हो गया है या कहे कम उपयोग करना चाहिए। कई वैस्कुलर सर्जन इसके वैस्कुलर प्लग की तरह भी कहने लगे है क्यूंकि ज्यादा दिनों तक इसके पड़े रहने से आई वी सी को भी क्लॉटिंग /थक्के होने का डर रहता है। और कुछ कंडीशन को छोड़कर हमेशा इसे निकलना पड़ता है. आई वी सी फ़िल्टर को डालना ज़्यदातर कंडीशन में एक सरल प्रक्रिया है, पर फ़िल्टर को निकलना इतना सरल नहीं होता , फ़िल्टर डालने के बाद माइग्रेट न करे इसके लिए इसमें हुक होते है जो आई वी सी की दीवाल से चिपका देते है, निकालते समय कई बार यह खतरनाक भी हो सकती है, और यदि ये ज्यादा दिनों तक पड़ा रहे तो इसको निकालना और भी समस्या कर सकता है ,और आई वी सी में खून का थक्का बनने की संभावना तथा इसके बंद होने की समस्या भी हो सकती है. DVT मैनेजमेंट करने के नए तरीके आ जाने से इलाज की प्रक्रिया और भी सुगम हो गयी है. कई मरीजों में हम मशीन से सक्शन करके थक्के को निकाल सकते है और डायरेक्ट थक्के के ऊपर खून की नसों में कैथेटर डाल कर थक्के को गला सकते है. कुल मिलकर ये कहे की ज़्यदातर DVT के मरीजों में फ़िल्टर की आवश्कता नहीं होती है , पर यदि इसको डालते है तो मरीज को बताना जरूरी है कि इसको निकलना भी ( ज्यादातर मामलो में) जरूरी है।
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